हम शायद उन चाँद लोगो में शामिल होने जा रहे थे जिन्हे श्री नन्दा देवी राज जात यात्रा पूरी करने का सौभाग्य हासिल है जो की १२ वर्श में एक बार होती हैI गढ़वाल के नौटी गाँव से येयात्रा प्रारम्भ होति है। नौटी, देवी पार्वती का मायका कहलाता है। माँ पार्वती को नंदा भी केहते हैं, ये मा को मैके से उनके ससुराल शिव के पास कैलाश पहुचाने की यात्रा है जहां मानव का जाना संभव नहीं, इसलिए, हर 12 साल बाद एक भेड़ का बच्चा पैदा होता है जिसे शिव का दूत माना जाता है, जिसके 4 सींघ होते हैं। जब ये बच्चा 6 माह का हो जाता है, तो यात्रा प्रारम्भ होती है और यही चौसिंघीया बच्चा जिसे मेंढा या खाडू कहते हैं, यात्रा के आगे चलता है, और सारे पुजारी और यात्री उसके पीछे जाते हैं।
हमने अपनी यात्रा सारे घरवालों के विरोध के बाद 28/8/2000 की रात लखनऊ से लाल कुआं की ट्रैन में बैठ कर की।
यात्रा के पड़ाव
लखनऊ – लाल कुआँ – कौसानी – ग्वाल दम – मंडोली – वान – गरारी पाताल – वेदिनी – पाथेर नचोनिया – भगुवासा – रूपकुंड – शिला समुंद्र – होमकुंड – चंदनिया घाट – -भुजानी- लता खोपड़ी – तत्रा – सुतोल – सीतला – घाट – कर्ण प्रयाग – हरिद्वार – लखनऊ
प्रातः 8 बजे, हम लाल कुआँ पहुचे। उस समय वहां मूसलाधार बारिश हो रही थी पर अधिक समय न नष्ट करके हमने कौसानी के लिए टैक्सी ली और चले पड़े। शाम 5 बजे हम कौसनी पहुंचे, वहां हमने उत्तराखंड लॉज में एक कमरा लेलिया, और हल्के नाश्ते के बाद हम बाहर घूमने गए तथा प्रकृति के सुन्दर नज़ारे देखते रहे। लगभग 8 बजे घरवालों को फ़ोन करके हम वापस रूम पर आगये। थकान भी काफी थी, हमने थोड़ी ड्रिंक के साथ खाना खाया और सो गए।
अगली सुबह हमने नाश्ता करके चेकआउट किया और लगभग 11 बजे टैक्सी से हम गरुड़ आ गये, और वहां से 12:30 बजे दूसरी टैक्सी से हम बैजनाथ होते हुए 45 किलोमीटर दूर ग्वाल दम पहुचे। उस समय शाम का 3 बजा था, उसी समय वहां से देवी का डोला निकल रहा था, पूरे ग्वाल दम में कुम्भ जैसा माहौल था।
हमने ग्वाल दम में गढवाल टूरिज्म बंगले में एक रूम लिया और शाम 6 बजे तक आराम करने के बाद हम पोर्टर की तलाश में निकले। यात्रा का समय होने के कारण पोर्टर का मिलना काफी मुश्किल काम था पर हमारा भाग्य अच्छा था की हमे एक अच्छा पोर्टर कम गाइड कम कुक मिला। उसका नाम था आनंद सिंह परिहार। सामान कुछ ज़ादा होने के कारण आनंद ने दिलीप नाम का एक दूसरा पोर्टर भी साथ ले लिया।
दोपहर 12 बजे हम चारों टैक्सी में बैठ कर ग्वाल दम से देवाल के लिए रवाना हो गए। रास्ता इतना कठिन और कीचड़ भरा था कि कई बार तो टैक्सी 2 पहियों पे चली, पर माता की कृपा से हम दोपहर 2 बजे 20 किलोमीटर दुर देवल पहुचे। हम सोच सोच कर रोमांचित थे कि कल से हमारी रोमांचक पैदल यात्रा शुरू होगी।
आनंद ने एक खाली झोपडी की पहली मंज़िल पर हमारे रहने का प्रबंध किया, उसमे खिड़कियाँ तो थी पर उन पर दरवाज़े नहीं थे। । अपने घर से लाये स्टोव व गैस से आनंद ने हमें चाय तथा पूड़ी सब्जी बना कर खिलाए, उस खाने का स्वाद कई पकवानों से बढ़कर लगा। खाना खाकर हम सो गए।
सुबह हमारा मन अंडा खाने का हुआ पर धार्मिक माहौल होने के कारण हम चारों ने अंडे की भुजिया और पूड़ी अपनी पीठ रास्ते की तरफ करके छिप कर खाई, आनंद एक बहुत अच्छा कुक साबित हुआ।
शाम को 7 बजे देवी माँ की डोली मंदोली पहुची साथ में चौसिंघा मेंढा जो की यात्रा की अगुआई कर रहा था। माता की डोली के साथ भक्त लोग देवी के दहेज़ के सामन छत्रियो में बांध देते हैं, इन छत्रियों को छतौली भी कहा जाता है। मंदिर में जन सैलाब तीर्थ यात्रियों का देखने वाला था। बरसता पानी, व हवनकुण्ड जलाकर पुजारी लोग जिस प्रकार नाचे हैं वो यादगार क्षण थे।
भारी बारिश के बाद भी भक्तों के उत्साह में कोई कमी नहीं थीI वहां हमने तय किया की अब यात्रा की समाप्ति तक हममें से कोई नॉन-वेज नहीं खायेगा, ड्रिंक, स्मोक नहीं करेगा और न शैव बनाएगाI
सुबह उठकर, मांडोली से 3 किलोमीटर दूर कठिन चढ़ाई चढ़कर हम लोहाजंग पहुँचे जो पहाड़ी के ऊपर अत्यंत मनोरम स्थान है। वह हमने अपने स्वाथ्य की जाँच करवा कर फिटनेस प्रमाद पत्र तथा यात्रा हेतु रजिस्ट्रेशन करवाया।
फ़ोन की व्यवस्था न होने के कारण हमने पुलिस वायरलेस से रिक्वेस्ट करके उसे अपने घर के पास के थाने को वायरलेस करने को कहा पर बात नहीं हो सकी।
उत्साह और जोश के साथ हमने अपनी पैदल यात्रा 15 किलोमीटर दूर वान नामक स्थान के लिए शुरू की। कठिन पहाड़ी रास्तों, झरनो, नदियों, इतियादी को पार करते हुए हम शाम 4 बजे यात्रा के प्रथम पढाओ वान पहुँचे। उस समय धूप खिली हुई थी, और आसमान एकदम साफ था। पर शाम को 6बजे देवी का डोला पहुँचते ही मौसम में आश्चर्यजनक बदलाव हुआ, ज़ोर की बारिश शुरू हो गयी। मान्यताओं के अनुसार, देवी की विदाई जहां जहां होती है, आसमान रोता है, सच प्रतीत हुआ।
बाद में एक झोपडी में हमने अपना रह्न बसेरा बनाया और सामान रख कर देवी यात्रा में शामिल हो गए।
रात को हमारे दूसरे पोर्टर दिलीप को बुखार आने के कारण हमे उसे वापस भेजना पड़ा। अब पोर्टर की कमी हमारी यात्रा की सबसे बड़ी रुकावट थी। पर काफी कठिनाई के बाद एक खच्चर वाले को लेकर हम लगभग 10बाजे, यात्रा के चौथे पड़ाव गरारी पाताल के लिए रवाना हो गये। यह मार्ग अत्यंत कठिन था। 8 किलोमीटर की लगातार सांस फूलने वाली चढ़ाई और बारिश ने हमे पस्त कर दिया था पर किसी प्रकार दोपहर 2 बजे हम गरारी पाताल पहुचे। यह एक छोटा स्थान था, यहाँ पर टेंट लगाने की पर्याप्त जगह न होने के कारण, हम 2:30 बजे यहा से 4 किलोमीटर आगे वेदिनी बुग्याल के लिए रवाना होगये। अत्यंत दुर्गम मार्ग और कठिन चढ़ाई को पार करके थकान से चूर होकर हम शाम 5 बजे वेदिनी पोहचे। पर उस स्थान को देखकर हमारी सारी थकान गायब हो गई। स्वर्ग जैसा मनोरम यह बुगयाल लगभग 5 किलोमीटर में फैला है। जहाँ तक नज़र जाती, वह पर हरी मखमली घास तथा बीच में शीशे की तरह साफ़, निर्मल जल का वेदिनी कुण्ड चारो ओर बर्फ से ढकी चोटियां और उन पर खेलते बादल, अविस्मरणीय दृश्य था।
माता की कृपा हम पर थी, वह हमे केदार नाम का एक दूसरा पोर्टर मिला, यदि वो न मिला होता, तो आगे की यात्रा करना असंभव होता क्यों कि आगे खच्चर भी नहीं जाते थे।
रात को एक सपाट सी जगह देखकर आनंद ने अपना टेंट लगा दिया, टेंट में रहने का हमारा ये इस यात्रा का पहला अनुभव था। सब बहुत थके थे, अतः हमने खाना बाहर खाया। एक आदमी पूड़ी बना रहा था, और आलू की रसदार सब्जी थी लेकिन हमारे पास कोई गहरा बरतन न होने के कारण हमने अपने अपने डिस्पोजेबल गिलास में सब्जी लेली, अब उसे खाने का अनुभव अलग ही था, आलू निचे बैठ गए और ग्रेवी ऊपर तैर रही थी, एक बार पूड़ी खाते फिर गिलास से सब्जी पीते थे। खाना खाने के बाद हम लोग सो गए।
वेदनी की हाइट लगभग 11500फ्ट है। सुबह उठ कर हमने कई फोटो खींचे और 4 तारीख की सुबह हम वेदिनी से आगे अगले पड़ाव भागूवासा के लिए रवाना हो गए। वैसे तो यात्रा का अगला पड़ाव पाथर नाचोनिया था, पर टेंट लगाने हेतु जगह न मिलने के कारण, हमने भागूवासा को प्रेफर किया 12 किलोमीटर की बहुत ही कठिन चढ़ाई चढ़के, हम शाम 5 बजे भागूवासा पहुंचे।
बहुत ही पथरीला स्थान होने के कारण टेंट लगाने लायक सपाट जगह ढूँढना बहुत ही मुश्किल काम था। पर आनंद ने किसी प्रकार टेंट लगाया, पर वहां इतना उबड़ खाबड़ था की बड़ी कठिनाई से जाग जाग कर हम चारों ने वह रात काटी और सुबह होते ही चाय पीकर हम यात्रा क अगले पड़ाव शिला समुद्र के लिए रवाना हो गये।
यह रास्ता इतना दुर्गम और खतरनाक था कि बड़े से बड़े पर्वतारोही के लिए भी इसे पार करना एक चुनौती था।
लगभग 10:30 बजे हम 6 किलोमीटर दूर, रूपकुंड पहुचे। ये एक छोटा परंतु रहस्यमय कुंड है। रहस्यमय इसलिए कि आज से लगभग 700 वर्ष पूर्ण, यहाँ एक सेना दब गई थी जिसके अस्थि-पंजर आज भी इस कुण्ड के चारों और बर्फ में दबे हुए हैं। जिनमे कई में तो, मॉस भी लगा हुआ है। दबे हुए लोगो की चप्पलें भी पड़ी थी जो कि साधारण से तीन गुना बड़ी थी, हमारे मन में ये ख्याल आया कि उस समय के लोग कितने बड़े होते होंगे। यहाँ हमने कई फ़ोटो लिये परन्तु 15000 फीट की ऊंचाई और पेड़ पौधों के न होने के कारण यहाँ ऑक्सीजन बहुत कम था, सांस लेने में बहुत कठिनाई हो रही थी। यहाँ से हम 9 किलोमीटर दूर शिला समुद्र के लिए रवाना हुए, यह शायद अब तक की यात्रा का सबसे कठिन मार्ग था क्यूंकि यहाँ हमे यात्रा के सबसे ऊँचे स्थान 17500 फ़ीट, ज्योना गली को पार करना था (ज्योना मतलब यमराज), अतः इसे पार करने का अर्थ था यम के हाथों से बच कर निकलना, लगभग 1।5 फीट चौड़ा तथा 20 फीट लंबा ये मार्ग पार करना दूसरा जीवन मिलने जैसा लगा। कीचड़ और फिसलन और 2000 फ़ीट निचे रूपकुंड देख कर ही रोंगटे खड़े हो रहे थे। लेकिन वह पर बी।एस।एफ के जवानों ने रस्सी के सहारे हमको वो मार्ग पार कराया। इसके तुरंत बाद शिला समुद्र की ढ़ाल शुरू हुई, एकदम खड़ी ढाल पर सेना के जवानों ने लगभग 100 मीटर रस्सी लगा रखी थी। उस रस्सी को छोड़ने के बाद से नीचे तक पहुँचने का हमारा हर कदम खतरनाक था। एक गलत कदम हमे जान पर भारी हो सकता था, पर माँ की कृपा से सभी यात्री सकुशल शिला समुद्र पहुचे। चारों और बर्फ के ग्लेशियर से घिरा यह एक मनोरम स्थान था।यहाँ हमने रात का खाना खाया और माता की डोली पर कुछ चढ़ावा भी चढ़ाया।
6 तारीख की सुबह, हम यात्रा की अंतिम पूजा हवन व चौसिंघीया मेढ़े की विदाई हेतु, सुबह 6:30 बजे होमकुंड के लिए रवाना हुए। हवन का समय 11:30 निर्धारित हुआ था पर रास्ता इतना कठिन था कि 25000 लोगो में से सिर्फ 300 लोग उस आखरी स्थान तक पहुंचे। मैं उन भाग्यशाली लोगों में एक था। मेरा दोस्त सुनील भी रस्ते में पीछे रह गया। पूजा में मैंने अपनी चुनरी तथा नारियल अर्पण करने के बाद माता की दूसरी चुनरी और छतौलियो से झपटि हुयी अन्य वस्तुएं चूड़ी कंघी हासिल की, जो की घर ले जाने का प्रसाद था। वहाँ पर चौसिंघीया मेढ़े को छोड़कर वापसी आरम्भ की।
ऊपर ग्लेशियर फटने के कारण बहुत ही भीषण आवाज़े हो रही थी, और दोपहर में अँधेरे जेसा हो चुका था। इसलिए मैं काफ़ी तेज़ी से नीचे उतरा। पर सुनील तथा दोनो पोर्टर मुझे नहीं मिले। मै जल्दी जल्दी चलते चलते यात्रा के अगले पड़ाव चंदनिया घाट पहुँचा पर वो लोग वहाँ भी नहीं मिले। तब मैं समझ गया की ये सब पीछे रह गए हैं, पर अब पीछे जाना नामुमकिन था।
मैने आगे की यात्रा शुरू करदी, इस यात्रा में जो रास्ता मिला वो मुझे अभी तक के रास्तों में सबसे खतरनाक लगा। 45 डिग्री की ढाल, मूसलाधार बारिश और हाड़ कंपा देने वाली ठंडक ने और भी खतरनाक बना दिया था। हाथ से पहाड़ी घास को पकड़कर रास्ता पार करना था। घास हाथ से छूटने का मतलब था मौत। किसी तरह 5 किलोमीटर का ये रास्ता पार हुआ तो स्लाइडिंग जोन आ गया। यहाँ पर हर समय लैंड स्लाइड का डर था, लोग चिल्ला रहे थे की आगे पहाड़ गिर रहा है, ज़िन्दगी के लिए मैं भी दौड़ रहा था। किसी प्रकार शाम 5 बजे इस रास्ते को पार करके मैं यात्रा के एक अस्थाई पड़ाव लाटा खोपडी पंहुचा।
शाम के 6 बजे थे, बारिश ज़ोरो की थी, मेरे सारे कपड़े भीग चुके थे, खाने-पिने और ओढ़ने-बिछाने को मेरे पास कुछ भी नहीं था। 11000 फीट की ऊंचाई पर रात भर पानी में भीगने का मतलब था मौत। इस पूरी यात्रा में इस समय मुझे लगा की शायद मैं अपने अपनों से कभी भी नहीं मिल सकूंगा,पर माता की कृपा मेरे ऊपर हुई और एक मिलिट्री वाले ने मुझे एक टेंट में सर छुपाने की जगह देदी, थोड़ी देर में मेरी तरह ही अपने साथियों से बिछड़े दो और यात्री भी आ पहुँचे। उनमें से एक के पास 6*6 की एक प्लास्टिक थी, उसे बिछा कर हम उस पर बैठ गए। सब को बहुत भूँक भी लग रही थी, तो टेंट के बाहर मैने देखा कि एक आदमी रोटियां बना रहा है लेकिन उसके पास कोई सब्जी नहीं थी, मेने उससे 6 रोटिया ख़रीदी, टेंट में जो लड़का मिला था उसके पास मिल्कमेड का डिब्बा था लेकिन उसे खोलने का कोई इंतज़ाम न होने के कारण हमने वो डिब्बा लाठियों से मार मार के तोड़ दिया। वही मिल्कमेड हमने रोटियो में लगाया, थोड़ी दाल-मोत मेरे पास थी उसे भी सबकी रोटियो में लगाया और सबने 2-2 रोटियाँ खाई। फिर उस लड़के ने मुझे अपनी जैकेट दी, क्यूंकि उसके पास स्लीपिंग बैग था। मैं 6 फ़ीट का और वो 5 फ़ीट का, भला उसकी जैकेट मुझे कहा ढक पाती, पर डूबते को तिनके के सहारे की तरह मैंने रात उसी जैकेट से खुद को ढकने का प्रयास करते करते गुज़री। मेरी पॉकेट में टॉर्च थी, जिसे बार बार जला कर घडी देखते हुए मैंने टाइम काट। सो पाने का तो सोचना भी व्यर्थ था, थकान एक मात्र कारण नहीं था वहाँ कीड़े अवं पहाड़ी बिच्छू भी घूमते दिख रहे थे। एक तरफ उनका डर और दूसरी तरफ ये ख्याल के कही भीगे होने के कारण भुखार न हो जाये नहीं तो पूछने वाला कोई नहीं है।
सुबह 6 बजे हम वहां से यात्रा क अगले पड़ाव सुतोल के लिए रवाना हुए, जो वहा से 14 किलोमीटर दूर था। रास्ते में लगभग 6 किलोमीटर बाद अचानक पैर फिसल कर गिरने से एक पत्थर मेरे हिप पर लग गया। दर्द के कारण मैं करीब 15 मिनट वहीँ पड़ा रहा, पर वह पड़े रहकर कुछ होने वाला नहीं था। प्रभु को याद करके लंगड़ाते हुए मैंने चलना शुरू किया, तथा किसी प्रकार 12:30 पर मैं सुतोल पहुँचा। पहली बार कई दिन बाद मुझे एक अच्छा गाँव तथा घर दिखाई दिए। हाथ पैर धो कर मैंने इक झोपडी में अपना सामान रखा और अपने मन्न में यह निर्णय किया की अब अपने साथियों के आने के बाद ही यहाँ से आगे चलूंगा। मै गाँव के द्वार पे बैठ गया, पर मेरी ख़ुशी का ठिकाना न रहा जब मेने शाम 5 बजे अपने तीनों साथियों को सुतोल में आते देख। हम ऐसे गले मिल रहे थे मानो कि हमने किसी मरे परिजन को दोबारा जीवित देख लिया हो। उसके बाद केदार क एक रिश्तेदार जो उसी गाँव में रहते थे के घर में हम रात को रुके। उन्होंने हमारी बहुत अच्छी ख़ातिर की। रात को हमने फ़ोन द्वारा अपने घर पे सूचना दी और ये फ़ोन रेडियो ऑस्ट्रेलिया द्वारा संचालित था, इसमें एक मिनट का ₹400 रेट आता था। बात करने के बाद देवी माँ के दर्शन करके हम सो गए।
अगले दिन 8 तारिख को, हमारी इस पैदल यात्रा के आखरी पड़ाव 25 किलोमीटर दूर घाट के लिए जाना था। सुबह 9:30 बजे हम घाट के लिए रवाना होगये। इस यात्रा में पहली बार सुगम मार्ग मिला लेकिन 25 किलोमीटर चलना भी कुछ आसान काम नहीं था। हमारे पैरों में छाले पड़ गए थे पर घर जाने की प्रबल इच्छा के कारण हम शाम 6:30 बजे घाट पहुंचे।
रात 9 बजे घाट से 40 किलोमीटर दूर बस से हम 11:30 बजे रात को कर्ण प्रयाग पहुँचे। घर पर फ़ोन करने के बाद काफी कठिनाई से रात लगभग 12:30 बजे हमे एक होटल कमरा मिला। आनंद यहाँ भी बहुत काम आया। उसने हमारे लिए पराँठा और अंडा बनाया। हम चारों लोग खाना खाकर रात में लगभग 2:45 बजे सो गए।
9 तारीख की सुबह 6 बजे, हमारे बिछड़ने का समय आ गया था। आनंद व केदार ने हमारा सामान ऋषिकेश जाने वाली बस में चढ़ाया, और गले मिलकर अपने अपने घरों को विदा ली। शाम लगभग 5 बजे हम ऋषिकेश तथा वहाँ से 5:45 पर हरिद्वार पहुंचे। वहाँ हमने हर-की-पौड़ी में गंगा स्नान किया, तथा खा-पि कर स्टेशन पहुंचे। किस्मत से हमे रेल गाडी में 2 बर्थ मिल गई और रात की यात्रा करके हम 10 तारीख की सुबह लखनऊ आगये। अपने परिवार से मिलकर हम इतने खुश थे कि शब्दों में कहना कठिन था। पर मन में एक अजीब सा संतोष व ख़ुशी थी की हमने अपनी इच्छा शक्ति से एक महान यात्रा पूरी करी।